Geeta-saar

 अर्जुनोवाच है भगवान! तुम पारब्रह्म हो, तुमको मेरा नमस्कार है। आगे मैं तुमको संबंधी जानता हूं। हे पारब्रह्म! गुरुदीक्षा कैसी होती है? कपा कर कहो।




     श्री भगवानों वाच है अर्जुन! तुम को धन्य है, फिर तुम्हारी माता भी धन्य है जिनके तुम जैसे पुत्र हुए। जिसने गुरु दीक्षा पूछी है। है अर्जुन! सारे जहां के गुरु जगन्नाथ हैं।




 विद्या का गुरु काशी, चारों वर्णों का गुरु ब्राह्मण और ब्राह्मण का गुरु संन्यासी! संन्यासी! संन्यासी उसे कहते हैं जिसने सबका त्याग करके मेरे विसे मन लगाया है। पंडित जगत गुरु हे।




 हे अर्जुन! यह बात ध्यान देकर सुनने की है। गुरु कैसा हो जिसने सब इंद्रियां जीती हों। जिसको सब संसार ईश्वर रूप नजर आता हो, ऐसा गुरु करे जो परमेश्वर को जानने वाला हो। उसकी पूजा करें।




 हे अर्जुन! जो गुरु का भक्त है। जो प्राणी गुरु सम्मुख होकर मेरा भजन करते हैं उनको भजन करना सुफल है। जो प्राणी गुरु से विमुख है उनको सप्त ग्राम मारे का पाप है। गृहस्थ गुरु के विमुख हो वो चांडाल के समान है।




 गुरु से विमुख का भजन भी अपवित्र होता है। उसके हाथ का भोग देवता भी नहीं लेते। उसके सर्व कर्म निष्फल है। कूकर, सकर, गंधर्भ, काक इन सब योनियों से सर्प की बड़ी खोटी योनी है। उन सबसे भी वह मनुष्य खोटा है जो यह कहता है गुरु बिना गति होती है।






Hare krishn govind 




 


वह अवश्य ही नरक को जावेगा। गुरु दीक्षा बिना प्राणी के सब कर्म निष्फल होते हैं। हे अर्जुन! जैसे चारों वर्णों का मेरी भक्ति करना योग्य है, वैसे गुरुधार के गुरु की भक्ति करनी सेवा करने योग्य है। जैसे सब नदियों में गंगा श्रेष्ठ है वैसे ही ही सब वर्तो में एकादशी का वृत्त श्रेष्ठ है वैसे ही धन्य जन्म तेरा है जिसने यह प्रश्न किया है। गुरु दीक्षा दोनों अक्षर हरिनाम है। इन अक्षरों को गुरु कहता है यह चारों वर्णों को जपना श्रेष्ठ है। 




जो गुरु की सेवा करता है मैं उस पर प्रसन्न होता हूं। वह चौकसी से छूट जायेगा। जन्म मरण से रहित नरक नहीं भोगता। जो प्राणी गुरु की सेवा नहीं करता वो साढ़े तीन करोड़ वर्ष तक नरक भोगता है।




 गुरु की सेवा मेरी सेवा है। हमारे तुम्हारे संवाद को जो प्राणी पढ़ेंगे और सुनावेंगे वो गर्भ के दुख से बेचेंगे तथा उनकी चौरासी कट जाएगी। इसीलिए इस पाठ का नाम गर्भ गीता है। 




श्री कृष्ण जी के मुख से अर्जुन ने श्रवण किया है। गुरु दीक्षा लेना उत्तम कर्म है। उसका फल यह है कि नरक की चौरासी से जीव बचा रहता है। भगवान प्रसन्न रहते हैं।

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